Friday, March 26, 2010

आशाओं के संग

निरंतर चल रहा है ये कारवां, गतिमान, उत्साहित आँखों में अरमान लिए,
जिन्दगी में कुछ हासिल करने,  स्वप्न सलोनों को पूरा करने,
अपनी ही उमंगों में चलता,  मुश्किलों को चुनौती समझ उनसे जूझता,
जैसे आगे बढ़ने की होड़ में नदियों या लहरों का टकराना, उनका छिन्न-भिन्न होना,
लेकिन फिर उसी उत्साह से आगे बढ़ना, पतझड़ में फूलों का एक-एक गिरता पत्ता,
लेकिन बसंत में खिलने वाली नई कोपलों की आस लिए,
यही जीवन के हैं रंग, आशा और निराशा संग -संग ,
अंत मुश्किलों का कर सामना, सपनों को न मरने दें,
भरता जा उनमें नित नए रंग, खुशियों व नई आशाओं के संग,
आशाओं के संग ...........

माँ

बदलाव आवश्क है , इसमें कोई अतिश्योक्ति नहीं लेकिन कभी -कभी जाने अनजाने में , आगे निकलने की होड़ में , या बदलते  परिवेश के साथ अनायास ही ये शब्द मुख से निकल आते हैं , यह कुछ पंक्तिया उस महान शक्सियत के लिए जो कभी कुछ नहीं मांगती! जिसके मुख से हमारे लिए हमेशा दुआएं निकलती है ! एक बच्चा माँ की गोद  में आकर अपने सब दुःख भूल जाता है , हमारे जीवन में हमारी पहली गुरु , उसका कुरूप बालक भी उसे इस दुनिया में सबसे खूबसूरत  लगता है ! कहते हैं ना  जब परमात्मा ने इस दुनिया को बनाया  तो वे हर वक़्त हम सब के पास नहीं रह सकते थे तो एक ममता की ठंडी छांव लिए , मुख पर मधुर मुस्कान लिए, त्याग की मूर्त इस कायनात पर आई ! माँ जिसके इस शब्द में पूरी दुनिया समां जाती है ! माँ ये तुम्हारे लिए
समय बदल गया, कल जब छोटे थे कोई हमारी बात नहीं समझ पाता था ,
एक ' हस्ती ' थी जो हमारे रोने और टूटे - फूटे अल्फाजों को भी समझ जाया करती थी !
खाना बनाते वक़्त भी रस्सी हाथ में ले , झूला झुलाया करती थी,
हमारे साथ हर पल बड़ी हुई , हर मुश्किल में साथ खड़ी  हुई
आज आसानी से कह देते हैं , आप नहीं समझेंगी , रहने दीजिये ,
आज भी जब नाम तेरी बेटी का छपता है , ऐह माँ मुझे असर तेरी दुआओं का लगता है ,
आज भी अचानक उठ जाती है सोते -सोते  , जब कह दिया था माँ मुझे डर लगता है !!उस वात्सल्य मई को हमारा कोटि - कोटि अभिनन्दन ! आप सभी को माँ के लिए मनाये जाने वाले इस दिवस की  की बहुत बहुत शुभ कामनाएं ! महंगे तोहफों के साथ साथ क्यों न आज एक प्रण लिया जाये की इस माँ का आदर कर उचित सम्मान करेंगे ! इस माँ को जीवन के किसी भी क्षण  किसी का मोहताज नहीं करेंगे 

Wednesday, March 17, 2010

वो रोज मरती रही


र कर सवाल खुद से
वो रोज मरती रही,
अपने दर्द को
शब्दों के बर्तन भरती रही,

कुछ लोग आए
कहकर कलाकारी चले गए
और वो बूंद बूंद बन
बर्तन के इस पार झरती रही।

खुशियाँ खड़ी थी दो कदम दूर,
लेकिन दर्द के पर्दे ने आँखें खुलने न दी
वो मंजिल के पास पहुंच हौंसला हरती रही।

उसने दर्द को साथी बना लिया,
सुखों को देख, कर दिए दरवाजे बंद
फिर सिकवे दीवारों से करती रही।

रोज चढ़ता सूर्य उसके आंगन,
लेकिन अंधेरे से कर बैठी दोस्ती
वो पगली रोशनी से डरती रही।

इक दिन गली उसकी,
आया खुशियों का बनजारा,
बजाए इक तारा,
गाए प्यारा प्यारा,
बाहर जो ढूँढे तू पगली,
वो भीतर तेरे,
कृष्ण तेरा भीतर मीरा,
बैठा लगाए डेरे,

सुन गीत फकीर बनजारे का,
ऐसी लगन लगी,
रहने खुद में वो मगन लगी
देखते देखते दिन बदले,
रात भी सुबह हो चली,
हर पल खुशनुमा हो गया,
दर्द कहीं खुशियों की भीड़ में खो गया।

कई दिनों बाद फिर लौटा बनजारा,
लिए हाथ में इक तारा,
सुन धुन तारे की,
मस्त हुई,
उसके बाद न खुशी की सुबह
कभी अस्त हुई।

Sunday, March 14, 2010

प्रायश्चित

अक्षित अपने माता-पिता का एकलौता बेटा था ! उसके पिता शहर के डिप्टी कमिश्नर थे ! एक आलिशान बंगला , गाड़ियाँ सब सुख- सुविधाएँ उनके पास थी ! लेकिन अक्षित के पिता बहुत ही सुलझे हुए व समझदार थे!उन्होंने कभी भी अक्षित की फिजूल जरूरतों को पूरा नहीं किया था ! वे उसे बहुत प्यार करते थे परन्तु वे नहीं चाहते थे की ज्यादा लाड -प्यार और अधिक जेब-खर्ची के कारण व बिगड़ जाये ! वे हमेशा उसे लगन से पढाई करने के लिए कहते ! लेकिन अक्षित का मन बिलकुल भी पढाई में नहीं लगता था ! वह हमेशा दिए गए गृह-कार्य से जी चुराता ! कई बार कार्य न होने के कारण उसे अध्यापकों की डांट खानी पड़ती लेकिन सभी उसके पिताजी का लिहाज कर चुप हो जाते ! अक्षित को बाजार की गन्दी चीजें खाने का बहुत शोंक था ! अपनी इस गन्दी आदत के कारण व कई बार बीमार हो चूका था ! इसलिए उसके माता-पिता उसे बहुत समझाते व फालतू पैसे भी नहीं देते थे ! घर में नौकर -चाकर होने के बावजूद व घर से स्कूल बस में जाता ! क्योंकि उसके पिताजी उससे कड़ी- मेहनत करवा लायक बनाना चाहते थे ! एक दिन वह घर से स्कूल बस में जा रहा था ! उसके पिताजी ने उसे किराए के लिए पांच रूपए दिए थे ! उस दिन बस में बहुत अधिक भीड़ थी ! वह काफी देर तक पैसे हाथ में लेकर कंडेक्टर का इंतज़ार करता रहा ! कुछ देर बाद कंडेक्टर सबकी टिकते काट अपनी सीट पर जाकर बैठ जाता है ! अक्षित जब यह देखता है तो उसके मन में यही ख्याल आता है की वह जाकर टिकट ले आये ! लेकिन तभी उसका लालची मन उसे कई तरह के पर्लोभ्नो में फ़सा देता है ! वह चुप- चाप वंही बैठ जाता है और सोचता है की इसमें मेरी क्या गलती ! वह कंडेक्टर भैया खुद ही मेरे पास नहीं आया ! इतने में बस रूकती है भीड़ के साथ वह भी जल्दी से उतर जाता है ! स्कूल पहुँच उसकी ख़ुशी का ठिकाना नहीं रहता ! वह अपने दोस्तों को भी अपनी समझदारी का किस्सा बड़े गौरवपूर्ण तरीके से सुनाता है ! वे उसे समझाने की बजाय और अधिक उकसाते हैं की अरे तुम प्रतिदिनं ऐसा कर कितने पैसे बच्चा सकते हो ! उस दिन वह अपने दोस्तों के साथ बड़े मजे से पकोड़े खता है ! अब तो उसे इसमें आनंद आने लगता है ! प्रतिदिन कभी चाट , कभी गोल-गप्पे, ऐसा करते - करते पांच दिन निकल आते है ! अब वह इतना अधिक आदि हो जाता है की उसे खुद पर शर्मिंदगी महसोस होती है की यह काम उसने पहले क्यों नहीं किया ! सुबह वह रोज की तरह तैयार हो जब बस में चदता है तो पहले की तरह ही टिकेट नहीं लेता ! वेसे ही बस रूकती है जेसे ही वह अपने स्टॉप पर उतरने लगता है बस में चेकर आ जाते हैं ! सबकी टिकटे देख जब वह अक्षित से टिकेट दिखने को कहते हें तब वह सर हिला मना कर देता है ! वे बस को रुकवा उसका नाम व पिताजी का नाम पूछते है जब उन्हें पता चलता है की वह डिप्टी कमिश्नर राजेश प्रसाद का बेटा है तब वह उसे प्यार से समझाते है की अगर हम तुमे अब पुलिस के हवाले करदे तो तुम्हारे पिताजी की इज्जत मिटटी में मिल जाएगी ! उनकी कितनी बदनामी होगी ! वह डर कर रोने लग जाता है की में आगे से कभी ऐसा कोई काम नहीं करूँगा ! में वायदा करता हूँ की कभी बिना टिकट लिए बस में सफ़र नहीं करूंगा ! उन अफसरों को अक्षित पर तरस आ जाता है वे कहते हैं की अगर तुम वायदा करते हो और तुमें अपने किये पर प्रायश्चित हें तो हमने तुमे माफ़ किया ! अत : हमें इस कहानी से यही शिक्षा मिलती है की कभी भी लालच में आकर ऐसा कोई काम नहीं करना चाहिए जिसके परिणाम नुकसानदायी हो !

Tuesday, March 9, 2010

गुलिस्तान हमारा

मजहब नहीं सिखाता आपस में वैर रखना , हिंदी हैं हम वतन है ये हिन्दुस्तान हमारा, अनायास ही शब्द मेरे मुख से निकले जब में माई नेम इस खान देख रही थी ! यह बात शायद बहुत पुरानी हो गयी है परन्तु देखने व लिखने का मौका अभी मिला ! मीडिया हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है यह हम सब भली- भांति जानते है ! मिटटी को सोना बना सकता है और आकाश के तारे को शायद एक आम इन्सान ! इस फिल्म के बारे में हर व्यक्ति की अपनी राय रही होगी लेकिन में यही कहना चाहूंगी की हमारी परवर्ती दुसरे को गलत सबित और गलतियाँ निकलने की बन चुकी है ! कभी हम राजनीती तो कभी पुरे सिस्टम को दोष देते हैं लेकिन यह भूल जाते हैं की ये लोग भी हमारे जैसे हैं ! क्यों न अब शुरुआत खुद से की जाये ! इस फिल्म को खासतौर से मीडिया से जुड़े लोगों को जरुर देखना चाहिए ! हम किसी भी गलत बात को बहुत जल्दी सीखते हैं! क्यों न इस बार प्रयास कुछ अच्छे से किया जाये ! लेखक ने सही कहा है की सिर्फ दो तरह के लोग हैं अच्छे और बुरे ! मजहब चाहे कोई भी हो सभी गुरुओं , पीर, पेंग्म्ब्रों ने सच्चाई व नेकी के राह पर चलने का सबक दिया है ! लेकिन आज धर्म के नाम पर इतने झगडे , दंगे -फसाद हो रहे है ! जिनका घर बर्बाद हो गया कोई उनसे पूछे , जिस घर का जवान लड़का कौमी लडाई में चला गया उस माँ के दिल का हाल बयाँ कोई नहीं कर सकता ! जब कुछ करने का जज्बा व् नीयत भली हो अगर लक्ष्य सिर्फ दूसरों की भलाई तो शायद कभी कोई यह न देखे की सामने वाला पीड़ित किस कौम का है ! हमारा देश तो एक फूलों का रंग- बिरंगा गुलदस्ता है , जंहा तरह- तरह के सुगन्धित फुल अपनी खुशबू , व सुन्दरता को बनाये हुए हैं ! जब भी देश पर विपति आई है पूरा भारत सर्वदा एक जुट हो सामने आया है लेकिन जब भाषा , धर्म और कभी मंदिर तो कभी मस्जिद के नाम पर खून - खराबा होता है तो मानवता भी शर्मसार हो जाती है ! मीडिया को भी चाहिए कभी टी. आर . पी. की दौड़ से बाहर आकर अपना फ़र्ज़ पहचाने ! जब दो भिन्न धर्मों के लोग एक साथ दिवाली मानते है वो कवर करना शायद मुश्किल हो लेकिन एक जलती बस का सीन सारा दिन टी. वी पर चलता है ! जिससे देश के बाकि हिस्सों में बैठे लोग कभी संपर्क ना हो पाने के कारण चिंता में जान दे देते है ! यह जानकारी के लिए है , सूचना के लिए है ताकि मीलों दूर बैठे होने पर भी हम इनसे जुड़े रहें ! वंही विपत्ति आने पर यही चैनल वाले सहायता भी करते हैं ! कई मुद्दे ऐसे हैं जो मीडिया के कारण प्रकाश में आये और उन्हें न्याय मिल सका ! में फिर वही बात दोहराना चाहूंगी अच्छाई और बुरे , हर स्थान , हर वस्तु में है परन्तु अति हर चीज की बुरी है ! अत : यही गुजारिश मीडिया से भी अपनी जिम्मेदारियों को और परिपक्वता , ईमानदारी से निभाए क्योंकि कमियां शायद कई अधिक होगी लेकिन आज हम कुछ शुरुआत अच्छाई से करेंगे ! जैसे जब एक सत्तर वर्षीय बुजुर्ग को पेड़ लगता देख उसका पोता पूछता है की दादाजी इसका क्या फायदा आप तो इसके फल नहीं खा पाएंगे ! उन्होंने हसकर कहा लेकिन तुम और आने वाली कई पीड़ियाँ तो खायेंगी व इसकी छाया में विश्राम करेंगी ! जैसे की हम अपने बुजुर्गों द्वारा लगाये गए वृक्षों का इस्तेमाल करते आये हैं ! वह बच्चा भी इससे सीख लेता है की हाँ में भी आगे चलकर यह नेक कार्य अवश्य करूँगा ! अत इंसान को उसकी मानवता से पहचे नाकि रंग , धर्म व जाति से !