Thursday, May 17, 2012

भ्रम का नशा

किसी टीवी चैनल में काम करना और अपनी नौकरी को स्थिर बनाए रखना, किसी चुनौती से कम नहीं है। कभी ‘ब्रेकिंग न्यूज’ की मारामारी, तो कभी कोई फीचरनुमा कार्यक्रम तैयार करने का तनाव। कभी किसी खबर की कॉपी तैयार करने की जल्दी तो कहीं दृश्य-चित्रों का रोना। इन सबके बीच हम अक्सर भूल जाते हैं कि हमारी जिंदगी का कोई निजी कोना भी है, जिसके लिए हम इतनी मेहनत कर रहे हैं। तमाम व्यस्तताओं के बीच दफ्तर के बाहर चाय की दुकान पर वह बोझ थोड़ी देर के लिए हल्का होता हुआ लगता है। अपने अनुभवों के आईने में देखती हूं तो उस दिन समूह में खड़ा होकर भाषण-सा देने वाला युवक मुझे दफ्तर के भीतर अपने दिलो-दिमाग पर लदे किसी भारी बोझ को हल्का करता हुआ लगा। दूसरा युवक मैगी की प्लेट लेते हुए बार-बार घड़ी की सुइयों की ओर भी देख रहा था। आज तक यह समझ नहीं पाई कि ये लोग अपनी पाली खत्म होने का इंतजार करते हैं या यह देखते हैं कि अभी आॅफिस में और कितने घंटे बाकी हैं। या फिर इस बात की फिक्र में घड़ी पर नजर टिकाए रखते हैं कि काम के बीच इस ‘ब्रेक’ में एक मिनट की भी देरी उन्हें अपने वरिष्ठ से वैसी डांट भी खिला सकती है जिसे सुनने के बाद बस खुदकुशी कर लेने का मन करे!
बहरहाल, इस ‘ब्रेक’ में हम चार-पांच लोग चाय पीते हुए अपनी-अपनी कह-सुन रहे थे कि एक पुरुष सहकर्मी ने कहा कि बहुत तनाव हो रहा है, जरा एक सिगरेट दीजिए। वापस लौट कर एक नए विषय पर लिखना है। ऐसा अक्सर होता है जब कोई अपने तनाव से निपटने या नया काम करने के लिए सिगरेट की जरूरत बताता है। लेकिन मेरे लिए यह समझना मुश्किल रहा है कि सिगरेट क्या सचमुच एक जरूरत है। अगर हां, तो ऐसा मेरे साथ क्यों नहीं है या ज्यादातर महिलाएं बिना सिगरेट के अपने तमाम तरह के तनाव से कैसे निपटती हैं या फिर रोज सौंपे गए नए काम को कैसे पूरा करती हैं। मैंने उस पुरुष सहकर्मी से पूछा कि नए विषय पर लिखने या नए ‘कॉन्सेप्ट’ से सिगरेट का क्या ताल्लुक है। वे महापुरुष की तरह अज्ञानी प्राणी मान कर मुझे समझाने लगे कि सिगरेट का कश लगाने पर दिमाग से रचनात्मक विचार अपने आप बाहर आने लगते हैं। अच्छा सोचने-समझने और खासतौर पर लिखने के लिए सिगरेट का सेवन बेहद जरूरी है, क्योंकि इससे दिमाग की सारी चिंताएं या तनाव एकदम शांत हो जाते हैं और हम किसी एक बात पर अच्छी तरह अपना ध्यान केंद्रित कर पाते हैं। कुछ लोगों को यह भी कहते सुना है कि शराब पीकर ही कुछ नया करने की ऊर्जा मिलती है।
उस समय कई प्रश्न मेरे मानस पटल पर किसी तेज हथौड़े की तरह वार कर रहे थे। मेरी तरह जितने भी लोग सिगरेट नहीं पीते, क्या वे सोचने-समझने या नए विषय पर लिखने की काबिलियत नहीं रखते? क्या किसी भी रचनात्मक काम के लिए किसी व्यसन या नशीले पदार्थ का सेवन सचमुच अनिवार्य है? अब तक मैं यही मानती रही हूं कि रचनात्मक काम या लेखन आदि के लिए अच्छी समझ और ज्ञान का होना जरूरी है। इसलिए अपने उस सहकर्मी की बातें मुझे अजीब लग रही थीं कि अपने तनाव को कम करने या कुछ नया करने के लिए शरीर को खोखला करने वाले तंबाकू की जरूरत है। जो लोग ऐसा कहते हैं, क्या वे एक झटके में उन सभी लोगों की मेहनत को खारिज नहीं कर देते हैं जो शराब या सिगरेट नहीं पीते?
इक्के-दुक्के उदाहरण को छोड़ दिया जाए तो महिलाएं आमतौर पर बिना सिगरेट या शराब की बैसाखी के अपना काम पूरी कुशलता से करती हैं और लगभग हर मामले में वे पुरुषों को टक्कर देने की स्थिति में हैं। सही है कि कुछ महिलाएं महज पुरुषों की नकल करके सिगरेट के धुएं के गुबार के सहारे अपनी मौजूदगी दर्ज कराना चाहती हैं। शायद इसलिए कि ऐसा नहीं करने पर कहीं उन्हें ‘पिछड़ों’ की श्रेणी में न गिन लिया जाए! मेरा मानना है कि इस तरह वे अपने ही अस्तित्व को कम करके आंकती हैं। ऐसा सोचने वालों में कई वैसे भी होते हैं जो भारतीय संस्कृति और उसमें स्त्रियों से जुड़ी नैतिकता का बखान करते नहीं थकते। इस तरह की दोहरी मानसिकता एक नया भ्रम रचती है, जिसमें खुद पर भरोसा नहीं रहता और तथाकथित ऊर्जा के लिए लोग नशे को जरूरी मानने लगते हैं। बिना इस बात की परवाह किए कि ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो उनसे ज्यादा देर तक और हर तरह से बेहतर काम करते हैं या सोचते-समझते हैं, लेकिन वे किसी नशे के गुलाम नहीं हैं।

1 comment:

  1. बिल्कुल सही आकलन किया है आपने

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