Tuesday, June 4, 2013

विज्ञापन और उपभोक्तावादी समाज

घर का सामान खरीदने सुपर-मार्केट गयी थी ! मेरी छह साल की बिटिया भी मेरा हाथ बटाने के लिए मेरे साथ थी ! किचन का सामान देखते -देखते मैं थोडा आगे निकल आई ..पीछे बिटिया बहुत ख़ुशी  से ट्राली घसीट  कर ला रही थी ! खरीददारी खत्म कर बिल काउन्टर पर पहुंची ..लेकिन भीड़ सामान्य से कुछ ज्यादा थी ..शायद छुट्टी होने के कारण आज सभी लोग फुर्सत से खरीददारी या यूँ कहू की जेबें ढीली कर रहे थे ! ट्राली खड़ी करके  मैं बिटिया से बातें करने लग गयी ..और काउंटर  पर बैठे  केशियर सामान का बिल बनाने में व्यस्त हो गये ..सामान का जायजा लेते हुए मैंने देखा की उसमें कुछ शेविंग ब्लेड और मरदाना डियोड्रेंट थे ! मैं सोच-विचारों के जाल में उलझ सी गयी और झट से उन्हें इशारा किया की इस सामान का बिल मत बनाइए यह हमारा नहीं है ...मैंने इसे नहीं खरीदा ! मेरा इतना कहना ही था की झट से मेरी बिटिया बोल पड़ी नहीं मम्मी ये हमारा ही सामान है ! ये मैंने लिया है ! मुझे कुछ समझ नहीं रहा था ..की  इतनी  छोटी सी  बच्ची इस सामान का क्या करेगी ? मैंने जल्दी से बिल बनवाया और सामान उठाकर  घर की और चल दी ..सोचा घर जाकर आराम से इस बारे में बात करुँगी .. लेकिन थोड़ी देर बाद वो खुद ही कहने लगी ..ममी आपने सामान वंहा क्यों छोड़ दिया ..वो टी.वी वाली आंटी भी तो ये सब लगाती है ! मुझे भी ये सब चाहिए ..उसकी ये बात सुनकर ऐसे लगा जैसे सिर पर किसी ने हथोड़े से वार कर दिया हो ! मैं बिना उसकी बात का जवाब दिए एक गहरी सोच में चली गयी ..घर गया था .. और उसके साथ ही मन में कई प्रश्न भी उठ चले थे ! किस और जा रहे हैं हम .. आज के इस बाजारवादी युग में अपने उत्पाद को बेचने की खातिर हम उपभोक्ता की भावनाओं के साथ भी खिलवाड़ करते जा रहे हैं ! हर समय टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले विज्ञापन एक धीमे ज़हर की तरह हम सबकी जीवन शेली को प्रभावित कर रहे हैं ..और इसका सीधा असर उस बाल सुलभ मन पर पड़ रहा है ..जिसे सच - झूठ , असली-नकली की पहचान ही नहीं है .. जो पर्दे की वास्तविकता को जिंदगी की असलियत समझ लेता है ! अपनी आराम कुर्सी पर बैठी इस प्रश्नों   के जवाब ढूंढ़ रही थी की बेटी ने टेलीविजन ऑन कर दिया ! किसी क्रीम बनाने वाली कम्पनी का विज्ञापन रहा था जिसके इस्तेमाल से त्वचा का रंग उजला किया जा सकता है ! मॉडल लड़की टेनिस खेलते वक़्त संकुचा रही थी ..उसे लग रहा था की अगर उसकी बाजू का रंग उसके चेहरे के गोरे रंग की तरह चमकदार नहीं  होगा तो शायद वो अच्छा  प्रदर्शन  नहीं  कर पायेगी ! किसी भी खेल में जितने के लिए  खिलाडी में खेल की भावनाओं का होना सच्ची लगन का होना ज़रूरी है ..या सिर्फ गोरे रंग के बलबूते पर किसी भी गेम की हार -जीत का फैसला किया जा सकता है ! आज भी ज़्यादातर पुरुषवादी सोच का मानना है की महिलाओं की जगह रसोई में ही है .. और उन्हें उसी काम में रूचि लेनी चाहिए ! वो महिलाओं को खुद से कमतर आंकते हैं .. लेकिन कार का टायर बेचने के लिए भी उन्हें महिलाओं की ही ज़रूरत पड़ती है ! जिसका दूर-दर तक उनसे कोई सरोकार नहीं है ..या यूँ कहें की आज भी ये उन संकीर्ण मानसिकता वाले लोगों को प्रलोभन देकर उनका ध्यान उत्पाद की गुणवत्ता की बजाय महिला  के शरीर की और आकर्षित करना है !  ना जाने कितने ही ऐसे उत्पाद है जिनका विज्ञापन बनाकर 24 *7  चलने वाली ..नहीं दौड़ने वाली दुनिया मैं दिखाया जाता है ..बिना ये सोचे की हर आयु वर्ग के लोगों का उन विज्ञापनों को देखने पर क्या प्रभाव पढ़ रहा है..चाहे वो महिलाओं की  इस्तेमाल वस्तुएं हो ..चाहे घर का साजो-सामान , या पुरुष के अंत: वस्त्र  ! विज्ञापन को लुभावना बनाने के लिए जितना पुरुष के शरीर को ढाका जाता है ..उतने ही महिला मॉडल के कपडे कम होते चले जाते हैं ! अगर विज्ञापन की छवि को एकबारगी भूलकर टेलीविजन की और देखा जाये तो ..इसमें हंसती- मुस्कुराती , खेलती , या सास के हाथों प्रताड़ित होती  नारी की छवि उभर कर सामने आती है ...वो साडी-या सूत में नज़र आती है .लेकिन किसी बर्तन बार , या कपडे धोने के साबुन   के विज्ञापन में ! बात चाहे कपड़ों की हो , राशन के सामान की , सपनों से सुंदर घर की .. बड़ी गाड़ी की , सौन्दर्य प्रसाधनों की या फिर पुरुष अंत: वस्त्रों की ...महिला को विज्ञापन का मुख्य केंद्र माना गया है !  जो बेहद शर्मनाक  है ! ये बात सोच ही रही थी की बिटिया ने आवाज़ लगाई मम्मी भूख  लगी है ! सोच के सागर से बाहर निकल कर रसोई की दुनिया में खड़ी थी ..लेकिन कंही कंही जेहन में विचारों का मंथन अभी जारी था

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