Monday, November 9, 2009

किसका दोष

फिलहाल मैं पटियाला शहर में पढाई कर रही हूँ ! एक दिन मेरी सहेलियों ने तय किया की इस शहर के प्रसिद्ध बाग़ बारादरी चल कर कुछ मौज -मस्ती की जाए ! यह जगह सचमुच खुबसुरत और सुकून देने वाली थी ! कोई चाहे तो कुदरत के रंगों में रंग कर शान्ति हासिल कर सकता है जो शहर की आपधापी में हमसे दूर हो गई है ! बारादरी को पुरा घूम कर हम सब एक जगह बेठ कर हँसी खेल कर रहे थे ! अचानक हमारा ध्यान फटे -पुराने कपड़े पहने एक लड़की की और गया ! जिसकी उम्र कोई सात -आठ साल रही होगी ! वह बहुत देर से हमे टकटकी लगाये देख रही थी ! कुछ बाद वह तरफ आई और पेसे मांगने लगी! आमतौर पर ऐसे समय में हमारे भीतर का मध्यमवर्ग जाग जाता है और या तो हम उसे कुछ सिक्के देकर पुण्य कमा लेते हैं या फिर उसे हिराक्त के साथ डपटते हुए भगा देते हैं ! कभी- कभी उसे मेहनत करने की सलाह दी जाती है ! ऐसे मौकों पर मुझे कभी समझ नहीं आता की क्या करना चाहिए! में कई बार पैसे दे देती हूँ या ऊहापोह में खड़ी रह जाती हूँ और फिर उस स्तिथि से निकलने के लिए थोडा हट कर खडी हो जाती हूँ ! थोडा हट कर खडा होना एक भाषा बन चुकी है जिसका मतलब होता है यंहा कुछ नहीं है ! मांगने वाला इस भाषा को समझ जाते जाते है और किसी दुसरे के पास किस्मत आजमाते चले जाते है ! लेकिन उस दिन ऐसा कुछ नहीं हुआ ! इसकी एक वजह शायद यह थी की वह अकेली थी और देर से हम लोगों को देख रही थी ! मुझे लगा की में उसकी नजरों में बंध सी गयी हूँ ! में उससे बातें करती चली गयी जिसे देख मेरी सहेलियां मुस्कुरा दी ! वह किसी तोत्ते की तरह जवाब दे रही थी , जैसे ये सरे सवाल उससे कोई इसी जगह पहले भी पुच चूका है ! उसके जवाबों के तोतेपन ने मेरे अंदर यह एहसास जगा दिया था की उसे मेरे सवालों का दायरा पता है और अगर कुछ पैसे मिल जाये तो किसी खाते -पीते घर की लड़की ऐसे सहनुभूति वाले सवालों का जवाब देने में क्या हर्ज है ! शायद इस एहसास से निकलने के लिए सहसा में पूछ बेठी की क्या तुम्हारा कोई सपना है ! कुछ देर सोचने के बाद उसने कहा हाँ दीदी - में पढना चाहती हूँ , और आपकी तरह कुछ बनना चाहती हूँ ताकि मुझे और मेरे परिवार को बड़े आराम से पेट - भर खाना मिले ! उसके छोटे से सपने के लिए मेरे पास कोई दिलासा या सलाह के शब्द नहीं थे ! हमने उसे अपने पास से कुछ खाना दिया ! इस बारादरी से वापिस अपने हॉस्टल की और चल पड़े ! रास्ते भर में उसके बारे में सोचती रही ! सपने हमारे भी हैं डॉक्टर, इंजिनियर , अफसर बनने के ! हममे से बहुतों के सपने पुरे हो जाये जिनके पूरे नहीं होंगे , उनकी जिन्दगी के सुख आराम में बहुत जादा फर्क नहीं पड़ेगा ! उसके ये कहने पर में नहीं चौकी की वह पढना चाहती है ! मैं उम्मीद कर रही थी की वह शायद यह कहे ! मगर उसके यह कहने से की वह आराम से पेट भर खाना चाहती है , में विचलित हो गयी ! हम सभी अपने -अपने सपने के पीछे भागते हैं इस बात से बेखबर होकर की आसपास कुछ अलग किस्म के सपने तैर रहे हैं ! जिन्हें व्यवस्था आसानी से पूरा होने नहीं देगी ! दोष किसका है ? उसके माता -पिता , जिन्होंने उसे सड़क पर भीख मांगने के लिए छोडा या इस गरीबी का और गरीबी किसका दोष है ? अब भी ,मुझे कभी मंदिरों के बहर खड़े बच्चे दिखाई देते हैं तो मुझे वह लड़की याद आ जाती है ! इन बच्चों को दूसरो को देख लम्बी दुआएं देना सिखाया जाता है ! यह कैसा समाज है ! जंहा गरीब और बेबस लगातार पैसे वालों को दुआएं देते रहते हैं ! लेकिन कोई पैसे वाला इन्हें दुआएं देता नजर नहीं आया !

4 comments:

  1. आपने समाज की विकृति पर उंगली रखी है। यह बस ऐसा ही है, हम चाह कर भी इसे बदल नहीं पा रहे। लेकिन सुकून इस बात का है कि आप जैसे संवेदनशील लोग इसके बारे में सोचते तो हैं।
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    और अब दो स्क्रीन वाले लैपटॉप।
    एक आसान सी पहेली-बूझ सकें तो बूझें।

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  2. "जंहा गरीब और बेबस लगातार पैसे वालों को दुआएं देते रहते हैं ! लेकिन कोई पैसे वाला इन्हें दुआएं देता नजर नहीं आया"
    बहुत ही अच्छी बात कही है आपने...आपकी सोच और लेखन दोनों को सलाम...
    नीरज

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  3. Mind blowing..........
    Keep it up ma dear frnd..........

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