Monday, January 4, 2010

सरहदी रिश्तों का खून

ना जाने कैसे इतने बरसों बाद ,
उन्हें हमारे ख्याल आया ........हम तो उन्हें भुलाये बैठे थे,
अपनी यादों के...
झरोखों में .........
ना जाने कैसे आज सरहद पार,
उनका पैगाम आया ,
पैगाम उनका वही मजबूरियों की...
कहानी कह रहा था ....
कह रहा था की दिल तुम्हे बहुत याद करता है
तुम्हारी सलामती की हर दम दुआ करता है ..
चाहता है मिलना पर ..
दूरियां बहुत है ..या यूँ कहो
दुनिया ने बनाई मजबूरियां बहुत है .
यह एक सरहदी रेखा पार नहीं होती
अब तो दिल के दर्द में साथ देना आँखों ने भी
छोड़ दिया है ..
और हमेशा उसके पैगाम ने दिल मेरा तोड़ दिया है
काश में कोई परिंदा होती ..
तो उड़ कर उसके पास चली जाती ..या हवा
होती तो उसकी साँसों में घुल जाती..
पर में तो एक मजबूर इंसान हूँ , जो हालातों और सरहदों का
मोहताज है , जिसके लिए इंसानी रिश्तों से बढ़ कर
ये इमारतें , और जमीन जायदाद है .
खून के रिश्तों का ही खून करने पर
आमदा है ....
या खुदा क्यों?
कब इन्हें इस गलती का एहसास हो पायेगा
शायद तब तक बेगुनाहों के लहू से ये संसार
लाल हो जायेगा ! लाल हो जायेगा

2 comments:

  1. बहुत उम्दा चिन्तन!!


    ’सकारात्मक सोच के साथ हिन्दी एवं हिन्दी चिट्ठाकारी के प्रचार एवं प्रसार में योगदान दें.’

    -त्रुटियों की तरफ ध्यान दिलाना जरुरी है किन्तु प्रोत्साहन उससे भी अधिक जरुरी है.

    नोबल पुरुस्कार विजेता एन्टोने फ्रान्स का कहना था कि '९०% सीख प्रोत्साहान देता है.'

    कृपया सह-चिट्ठाकारों को प्रोत्साहित करने में न हिचकिचायें.

    -सादर,
    समीर लाल ’समीर’

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  2. एक अद्भुत रचना, मुश्किल हो गया टिप्पणी देने से बचना।

    कलम और शब्दों में ऐसा ही तालमेल तुम रखना।

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