Wednesday, March 17, 2010

वो रोज मरती रही


र कर सवाल खुद से
वो रोज मरती रही,
अपने दर्द को
शब्दों के बर्तन भरती रही,

कुछ लोग आए
कहकर कलाकारी चले गए
और वो बूंद बूंद बन
बर्तन के इस पार झरती रही।

खुशियाँ खड़ी थी दो कदम दूर,
लेकिन दर्द के पर्दे ने आँखें खुलने न दी
वो मंजिल के पास पहुंच हौंसला हरती रही।

उसने दर्द को साथी बना लिया,
सुखों को देख, कर दिए दरवाजे बंद
फिर सिकवे दीवारों से करती रही।

रोज चढ़ता सूर्य उसके आंगन,
लेकिन अंधेरे से कर बैठी दोस्ती
वो पगली रोशनी से डरती रही।

इक दिन गली उसकी,
आया खुशियों का बनजारा,
बजाए इक तारा,
गाए प्यारा प्यारा,
बाहर जो ढूँढे तू पगली,
वो भीतर तेरे,
कृष्ण तेरा भीतर मीरा,
बैठा लगाए डेरे,

सुन गीत फकीर बनजारे का,
ऐसी लगन लगी,
रहने खुद में वो मगन लगी
देखते देखते दिन बदले,
रात भी सुबह हो चली,
हर पल खुशनुमा हो गया,
दर्द कहीं खुशियों की भीड़ में खो गया।

कई दिनों बाद फिर लौटा बनजारा,
लिए हाथ में इक तारा,
सुन धुन तारे की,
मस्त हुई,
उसके बाद न खुशी की सुबह
कभी अस्त हुई।

5 comments:

  1. हर शब्‍द में गहराई, बहुत ही बेहतरीन प्रस्‍तुति ।

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  2. कर कर सवाल खुद से
    वो रोज मरती रही,
    अपने दर्द को
    शब्दों के बर्तन भरती रही,

    कुछ लोग आए
    कहकर कलाकारी चले गए
    और वो बूंद बूंद बन
    बर्तन के इस पार झरती रही।
    Behad sundar!

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  3. बहुत उम्दा अभिव्यक्ति!

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  4. टिप्पणियों के लिए बहुत -बहुत धन्यवाद् ! आपने इस नए अतिथि कॉलम को इतना प्यार दिया ! वह कुलवंत जी का थे दिल से शुक्रिया जो हमारे इस नए कॉलम के पहले अतिथि बने ! आशा है की आप सब इसी तरह हमारी होसला अफजाई करते रहेंगे !

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  5. सुन्दर कवितायें बार-बार पढने पर मजबूर कर देती हैं. आपकी कवितायें उन्ही सुन्दर कविताओं में हैं.

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