Friday, June 4, 2010

धरती का दुःख

सहाए , दुखी , क्षीण हूँ ,
किसे सुनाऊँ अपनी व्यथा ,
कोई ना पीड़ा समझे मेरी , ना स्थिति जान पाए ,
आज यह मानव मुझे नोच- नोच कर खाए ,
कल -कल करती नदियाँ सूखी ,
वृक्षों को काट घरोंदे सजाये ,
बन गया है बोझ आज मेरी ही छाती पर ,
आज इस बोझ तले दबती जा रही हूँ ,
माँ , जननी इस खूबसूरती का नाम हूँ , लेकिन आज लुप्त होती जा रही हूँ,
करोगे खिलवाड़ प्रकोप तो दिखाउंगी , इंसान है शेतान ना बन ,
में तो मितुंगी   , साथ में तुझे भी नष्ट कर जांउगी!!

5 comments:

  1. बहुत ही मार्मिक कविता...

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  2. बहुत समयोचित, उम्दा पोस्ट।

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  3. bahut khub



    फिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई

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