किसे सुनाऊँ अपनी व्यथा ,
कोई ना पीड़ा समझे मेरी , ना स्थिति जान पाए ,
आज यह मानव मुझे नोच- नोच कर खाए ,
कल -कल करती नदियाँ सूखी ,
वृक्षों को काट घरोंदे सजाये ,
बन गया है बोझ आज मेरी ही छाती पर ,
आज इस बोझ तले दबती जा रही हूँ ,
माँ , जननी इस खूबसूरती का नाम हूँ , लेकिन आज लुप्त होती जा रही हूँ,
करोगे खिलवाड़ प्रकोप तो दिखाउंगी , इंसान है शेतान ना बन ,
में तो मितुंगी , साथ में तुझे भी नष्ट कर जांउगी!!
dharti ka dukh bayan kar diya...
ReplyDeleteबहुत ही मार्मिक कविता...
ReplyDeletebeautiful poem
ReplyDeleteबहुत समयोचित, उम्दा पोस्ट।
ReplyDeletebahut khub
ReplyDeleteफिर से प्रशंसनीय रचना - बधाई